नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर ? नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने कहँ ‘काका’ कवि, दयाराम जी मारें मच्छर विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर
मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट पैंट में- ज्ञानचंद छै बार फेल हो गए टैंथ में कहँ ‘काका’ ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे
देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे धनीराम जी हमने प्राय: निर्धन देखे कहँ ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गए क्वाँरे बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे
दीन श्रमिक भड़का दिए, करवा दी हड़ताल मिल-मालिक से खा गए रिश्वत दीनदयाल रिश्वत दीनदयाल, करम को ठोंक रहे हैं ठाकुर शेरसिंह पर कुत्ते भौंक रहे हैं ‘काका’ छै फिट लंबे छोटूराम बनाए नाम दिगंबरसिंह वस्त्र ग्यारह लटकाए
पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल बिना सूँड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी- बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी कहँ ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा
दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर भागचंद की आज तक सोई है तकदीर सोई है तकदीर, बहुत-से देखे-भाले निकले प्रिय सुखदेव सभी, दुख देने वाले कहँ ‘काका’ कविराय, आँकड़े बिल्कुल सच्चे बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे
चतुरसेन बुद्धू मिले,बुद्धसेन निर्बुद्ध श्री आनंदीलालजी रहें सर्वदा क्रुद्ध रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते कहँ ‘काका’, बलवीरसिंह जी लटे हुए हैं थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं
बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल सूखे गंगाराम जी, रूखे मक्खनलाल रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी निकले बेटा आशाराम निराशावादी कहँ ‘काका’ कवि, भीमसेन पिद्दी-से दिखते कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते
आकुल-व्याकुल दीखते शर्मा परमानंद कार्य अधूरा छोड़कर भागे पूरनचंद भागे पूरनचंद अमरजी मरते देखे मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे कहँ ‘काका’, भंडारसिंह जी रीते-थोते बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते
शीला जीजी लड़ रहीं, सरला करतीं शोर कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन निकलीं बड़ी कठोर निकलीं बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली सुधा सहेली अमृतबाई सुनीं विषैली कहँ ‘काका’ कवि, बाबूजी क्या देखा तुमने ? बल्ली जैसी मिस लल्ली देखी है हमने
तेजपाल जी भोथरे मरियल-से मलखान लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई कहँ ‘काका’ कवि, फूलचंदजी इतने भारी दर्शन करके कुर्सी टूट जाए बेचारी
खट्टे-खारी-खुरखुरे मृदुलाजी के बैन मृगनैनी के देखिए चिलगोजा-से नैन चिलगोजा से नैन शांता करती दंगा नल पर न्हातीं गोदावरी, गोमती, गंगा कहँ ‘काका’ कवि, लज्जावती दहाड़ रही है दर्शन देवी लंबा घूँघट काढ़ रही है
कलियुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ चपलादेवी को मिले बाबू भोलानाथ बाबू भोलानाथ, कहाँ तक कहें कहानी पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी ‘काका’, लक्ष्मीनारायण की गृहिणी रीता कृष्णचंद्र की वाइफ बनकर आई सीता
अज्ञानी निकले निरे पंडित ज्ञानीराम कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम रक्खा दशरथ नाम, मेल क्या खूब मिलाया दूल्हा संतराम को आई दुलहिन माया ‘काका’ कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा पार्वतीदेवी हैं शिवशंकर की अम्मा
पूँछ न आधी इंच भी, कहलाते हनुमान मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर-कमान घर में तीर-कमान बदी करता है नेका तीर्थराज ने कभी इलाहाबाद न देखा सत्यपाल ‘काका’ की रकम डकार चुके हैं विजयसिंह दस बार इलैक्शन हार चुके हैं
सुखीराम जी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ रहें सदा अस्वस्थ, प्रभू की देखो माया प्रेमचंद ने रत्ती-भर भी प्रेम न पाया कहँ ‘काका’, जब व्रत-उपवासों के दिन आते त्यागी साहब, अन्न त्यागकर रिश्वत खाते
रामराज के घाट पर आता जब भूचाल लुढ़क जाएँ श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल बैठें घूरेलाल रंग किस्मत दिखलाती इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती कहँ ‘काका’ गंभीरसिंह मुँह फाड़ रहे हैं महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं
दूधनाथ जी पी रे सपरेटा की चाय गुरु गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण मक्खन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण ‘काका’, प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे हरिश्चंद्रजी झूठे केस लड़ाते देखे
रूपराम के रूप की निंदा करते मित्र चकित रह गए देखकर कामराज का चित्र कामराज का चित्र, थक गए करके विनती यादराम को याद न होती सौ तक गिनती कहँ ‘काका’ कविराय, बड़े निकले बेदर्दी भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी
नाम-धाम से काम का, क्या है सामंजस्य ? किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिटे न रेखा स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा कहँ ‘काका’, कंठस्थ करो, यह बड़े काम की माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की |