दाढ़ी - काका हाथरसी
एक हास्य कविता - दाढ़ी
भारात के ऋषि मुनियों नें पाला था शान से,
जगमग थी ज्ञानियों पे दमकते गुमान से,
नानक से औ कबीर से तीरथ से धाम से,
पहचान जिसकी होती थी साधू के नाम से,
दे सकती थी जो श्राप ज़रा सी ही भूल पर,
सूरजमुखी की पंखुडी ज्यों आधे फूल पर,
मुखड़े पे जो होती थी बड़प्पन की निशानी,
केशों की सहेली खिले गालों की जवानी,
दिन रात लोग करते थे मेहनत बड़ी गाढ़ी,
तब जाके कहीं उगती थी इस चेहरे दाढ़ी,
दाढ़ी जो लहरती थी तो तलवार सी लगती,
हो शांत तो व्यक्तित्व के विस्तार सी लगती,
दाढ़ी तो दीन दुनिया से रहती थी बेख़बर,
करते सलाम लोग थे पर इसको देख कर,
दाढ़ी में हैं सिमटे हुए कुछ भेद भी गहरे,
सूरत पे लगा देती है ये रंग के पहरे,
दाढ़ी सफेद रंग की सम्मान पाएगी,
भूरी जो हुई घूर घूर घूरी जाएगी,
दाढ़ी जो हुई काली तो कमाल करेगी,
मेंहदी रची तो रंग लाल लाल करेगी,
दाढ़ी का रंग एक सा है छाँव धूप में,
सबको ही बांध लेती है ये अपने रूप में,
दाढ़ी के बिना चेहरा बियाबान सा लगे,
भूसी से बाहर आए हुए धान सा लगे,
दाढ़ी से रौब बढ़ता है ज़ुल्फों के फेर का,
दाढ़ी तो एक गहना है बबरीले शेर का,
चेहरे पे बाल दाढ़ी के जब आ के तने थे,
लिंकन भी तभी आदमी महान बने थे,
खामोश होके घुलती थी मौसम में खु़मारी,
शहनाई पे जब झूमती थी खान की दाढ़ी,'सत श्री अकाल' बोल के चलती थी कटारी,
लाखों को बचा लेती थी इक सिंह की दाढ़ी,
मख़मल सरीख़ी थी गुरु रविन्द्र की दाढ़ी,
दर्शन में डूब खिली थी अरविंद की दाढ़ी,
दिल खोल हंसाती थी बहुत काका की दाढ़ी,
लगती थी खतरनाक बड़ी राका ही दाढ़ी,
गांधीजी हमारे भी यदि दाढ़ी उगाते,
तो राष्ट्रपिता की जगह जगदादा कहाते,
ख़बरें भी छपती रहती हैं दाढ़ी के शोर की,
तिनका छिपा है आज भी दाढ़ी में चोर की,
उगती है किसी किसी के ही पेट में दाढ़ी,
पर आज बिक रही बड़े कम रेट में दाढ़ी,
सदियों की मोहब्बत का ये अंजाम दिया है,
आतंकियों नें दाढ़ी को बदनाम किया है,
करने को हो जो बाद में वो सोच लीजिए,
पहले पकड़ के इनकी दाढ़ी नोच लीजिए,
स्पाइस ओल्ड बेच रही टीवी पे नारी,
दाढ़ी की प्रजाति हो है ख़तरा बड़ा भारी,
गुम्मे पे टिका के कहीं एसी में बिठा के,
तारों की मशीनों से या कैंची को उठा के,
पैसा कमा रहे हैं जो दाढ़ी की कटिंग में,
शामिल हैं वो संसार की मस्तिष्क शटिंग में,
ब्रश क्रीम फिटकरी की गाडी़ बढ़ाइए,
फिर शान से संसार में दाढ़ी बढ़ाइए,
मैं आज कह रहा हूँ कल ये दुनिया कहेगी,
दाढ़ी महान थी, महान है, और रहेगी।