जय बोल बेईमान की

जय बोल बेईमान की _काका हाथरसी


मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !

प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !

महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !

डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की !

दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,
जय बोलो बेईमान की !

चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की !

वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बईमान की !

खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,
दस रुपए की भेंट में, थ्री टायर मिल जायँ।
हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी.टी. भगवान की,
जय बोलो बईमान की !

बेकारी औ’ भुखमरी, महँगाई घनघोर,
घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर।
अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की,
जय बोलो बईमान की !

मिल-मालिक से मिल गए नेता नमकहलाल,
मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल।
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,
जय बोलो बईमान की !

न्याय और अन्याय का, नोट करो जिफरेंस,
जिसकी लाठी बलवती, हाँक ले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती होल रही बलवान की,
जय बोलो बईमान की !

पर-उपकारी भावना, पेशकार से सीख,
दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख।
खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की,
जय बोलो बईमान की !

नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,
बीच सड़कर पर मर गया, हुई गरीबी दूर।
गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की,
जय बोलो बईमान की !

काका के हँसगुल्ल


काका के हँसगुल्ल _ काका हाथरसी

अंग-अंग फड़कन लगे, देखा ‘रंग-तरंग’
स्वस्थ-मस्त दर्शक हुए, तन-मन उठी उमंग
तन-मन उठी उमंग, अधूरी रही पिपासा
बंद सीरियल किया, नहीं थी ऐसी आशा
हास्य-व्यंग्य के रसिक समर्थक कहाँ खो गए
मुँह पर लागी सील, बंद कहकहे हो गए

जिन मनहूसों को नहीं आती हँसी

पसंद हुए उन्हीं की कृपा से,

हास्य-सीरियल बंद हास्य-सीरियल बंद,

लोकप्रिय थे यह ऐसे श्री रामायण और महाभारत थे

जैसे भूल जाउ, लड्डू पेड़ा चमचम रसगुल्ले

अब टी.वी.पर आएँ काका के हँसगुल्ले

कालिज स्टूडैंट


कालिज स्टूडैंट _ काका हाथरसी

फादर ने बनवा दिये तीन कोट¸ छै पैंट¸

लल्लू मेरा बन गया कालिज स्टूडैंट।

कालिज स्टूडैंट¸ हुए होस्टल में भरती¸

दिन भर बिस्कुट चरें¸ शाम को खायें इमरती।

कहें काका कविराय¸ बुद्धि पर डाली चादर¸

मौज कर रहे पुत्र¸ हडि्डयां घिसते फादर।


पढ़ना–लिखना व्यर्थ हैं¸ दिन भर खेलो खेल¸

होते रहु दो साल तक फस्र्ट इयर में फेल।

फस्र्ट इयर में फेल¸ जेब में कंघा डाला¸

साइकिल ले चल दिए¸ लगा कमरे का ताला।

कहें काका कविराय¸ गेटकीपर से लड़कर¸

मुफ़्त सिनेमा देख¸ कोच पर बैठ अकड़कर।


प्रोफ़ेसर या प्रिंसिपल बोलें जब प्रतिकूल¸

लाठी लेकर तोड़ दो मेज़ और स्टूल।

मेज़ और स्टूल¸ चलाओ ऐसी हाकी¸

शीशा और किवाड़ बचे नहिं एकउ बाकी।


कहें 'काका कवि' राय¸ भयंकर तुमको देता¸

बन सकते हो इसी तरह 'बिगड़े दिल नेता।'

आई में आ गए




आई में आ गए _ काका हाथरसी



सीधी नजर हुयी तो सीट पर बिठा गए।

टेढी हुयी तो कान पकड कर उठा गये।


सुन कर रिजल्ट गिर पडे दौरा पडा दिल का।

डाक्टर इलेक्शन का रियेक्शन बता गये ।


अन्दर से हंस रहे है विरोधी की मौत पर।

ऊपर से ग्लीसरीन के आंसू बहा गये ।


भूंखो के पेट देखकर नेताजी रो पडे ।

पार्टी में बीस खस्ता कचौडी उडा गये ।


जब देखा अपने दल में कोई दम नही रहा ।

मारी छलांग खाई से “आई“ में आ गये ।


करते रहो आलोचना देते रहो गाली

मंत्री की कुर्सी मिल गई गंगा नहा गए ।


काका ने पूछा 'साहब ये लेडी कौन है'

थी प्रेमिका मगर उसे सिस्टर बता गए।।

व्यंग्य एक नश्तर

व्यंग्य एक नश्तर _ काका हाथरसी

व्यंग्य एक नश्तर है ऐसा नश्तर,
जो समाज के सड़े-गले अंगों की
शल्यक्रिया करता है
और उसे फिर से स्वस्थ बनाने में सहयोग भी।

काका हाथरसी यदि सरल हास्यकवि हैं

तो उन्होंने व्यंग्य के तीखे बाण भी चलाए हैं।
उनकी कलम का कमाल कार से बेकार तक
शिष्टाचार से भ्रष्टाचार तक

विद्वान से गँवार तक
फ़ैशन से राशन तक
परिवार से नियोजन तक

रिश्वत से त्याग तक
और कमाई से महँगाई तक
सर्वत्र देखने को मिलता है।

मोटी पत्नी

मोटी पत्नी _ काका हाथरसी


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ढाई मन से कम नहीं, तौल सके तो तौल

किसी-किसी के भाग्य में, लिखी ठौस फ़ुटबौल

लिखी ठौस फ़ुटबौल, न करती घर का धंधा

आठ बज गये किंतु पलंग पर पड़ा पुलंदा

कहँ ‘ काका ' कविराय , खाय वह ठूँसमठूँसा

यदि ऊपर गिर पड़े, बना दे पति का भूसा

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नाम - रूप के भेद




नाम - रूप के भेद _ काका हाथरसी


नाम - रूप के भेद पर कभी किया है ग़ौर ?

नाम मिला कुछ और तो शक्ल - अक्ल कुछ और

शक्ल - अक्ल कुछ और नयनसुख देखे काने

बाबू सुंदरलाल बनाये ऐंचकताने

कहँ ‘ काका ' कवि , दयाराम जी मारें मच्छर

विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर


मुंशी चंदालाल का तारकोल सा रूप

श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप

जैसे खिलती धूप , सजे बुश्शर्ट पैंट में -

ज्ञानचंद छै बार फ़ेल हो गये टैंथ में

कहँ ‘ काका ' ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे

पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे


देख अशर्फ़ीलाल के घर में टूटी खाट

सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ

मील चल रहे आठ , करम के मिटें न लेखे

धनीराम जी हमने प्रायः निर्धन देखे

कहँ ‘ काका ' कवि , दूल्हेराम मर गये कुँवारे

बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बेचारे



पेट न अपना भर सके जीवन भर जगपाल

बिना सूँड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल

मिलें गणेशीलाल , पैंट की क्रीज़ सम्हारी

बैग कुली को दिया , चले मिस्टर गिरधारी

कहँ ‘ काका ' कविराय , करें लाखों का सट्टा

नाम हवेलीराम किराये का है अट्टा


चतुरसेन बुद्धू मिले , बुद्धसेन निर्बुद्ध

श्री आनंदीलाल जी रहें सर्वदा क्रुद्ध

रहें सर्वदा क्रुद्ध , मास्टर चक्कर खाते

इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते

कहँ ‘ काका ', बलवीर सिंह जी लटे हुये हैं

थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुये हैं


बेच रहे हैं कोयला , लाला हीरालाल

सूखे गंगाराम जी , रूखे मक्खनलाल

रूखे मक्खनलाल , झींकते दादा - दादी

निकले बेटा आशाराम निराशावादी

कहँ ‘ काका ' कवि , भीमसेन पिद्दी से दिखते

कविवर ‘ दिनकर ’ छायावदी कविता लिखते


तेजपाल जी भोथरे , मरियल से मलखान

लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान

करी न कौड़ी दान , बात अचरज की भाई

वंशीधर ने जीवन - भर वंशी न बजाई

कहँ ‘ काका ' कवि , फूलचंद जी इतने भारी

दर्शन करते ही टूट जाये कुर्सी बेचारी



खट्टे - खारी - खुरखुरे मृदुलाजी के बैन

मृगनयनी के देखिये चिलगोजा से नैन

चिलगोजा से नैन , शांता करतीं दंगा

नल पर नहातीं , गोदावरी , गोमती , गंगा

कहँ ‘ काका ' कवि , लज्जावती दहाड़ रही हैं

दर्शन देवी लंबा घूँघट काढ़ रही हैं


अज्ञानी निकले निरे पंडित ज्ञानीराम

कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम

रक्खा दशरथ नाम , मेल क्या खूब मिलाया

दूल्हा संतराम को आई दुल्हन माया

‘ काका ' कोई - कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा

पार्वती देवी हैं शिवशंकर की अम्मा

नगरपालिका वर्नन




नगरपालिका वर्णन _ काका हाथरसी


पार्टी बंदी हों जहाँ , घुसे अखाड़ेबाज़

मक्खी , मच्छर , गंदगी का रहता हो राज

का रहता हो राज , सड़क हों टूटी - फूटी

नगरपिता मदमस्त , छानते रहते बूटी

कहँ ‘ काका ' कविराय , नहीं वह नगरपालिका

बोर्ड लगा दो उसके ऊपर ‘ नरकपालिका '

"

दहेज की बारात

दहेज की बारात _ काका हाथरसी

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जा दिन एक बारात को मिल्यौ निमंत्रण-पत्र

फूले-फूले हम फिरें, यत्र-तत्र-सर्वत्र

यत्र-तत्र-सर्वत्र, फरकती बोटी-बोटी

बा दिन अच्छी नाहिं लगी अपने घर रोटी

कहँ 'काका' कविराय, लार म्हौंड़े सों टपके

कर लड़ुअन की याद, जीभ स्याँपन सी लपके


मारग में जब है गई अपनी मोटर फ़ेल

दौरे स्टेशन, लई तीन बजे की रेल

तीन बजे की रेल, मच रही धक्कम-धक्का

दो मोटे गिर परे, पिच गये पतरे कक्का

कहँ 'काका' कविराय, पटक दूल्हा ने खाई

पंडितजू रह गये, चढ़ि गयौ ननुआ नाई


नीचे को करि थूथरौ, ऊपर को करि पीठ

मुर्गा बनि बैठे हमहुँ, मिली न कोऊ सीट

मिली न कोऊ सीट, भीर में बनिगौ भुरता

फारि लै गयौ कोउ हमारो आधौ कुर्ता

कहँ 'काका' कविराय, परिस्थिति विकट हमारी

पंडितजी रहि गये, उन्हीं पे 'टिकस' हमारी


फक्क-फक्क गाड़ी चलै, धक्क-धक्क जिय होय

एक पन्हैया रह गई, एक गई कहुँ खोय

एक गई कहुँ खोय, तबहिं घुस आयौ टी-टी

मांगन लाग्यौ टिकस, रेल ने मारी सीटी

कहँ 'काका', समझायौ पर नहिं मान्यौ भैया

छीन लै गयौ, तेरह आना तीन रुपैया


जनमासे में मच रह्यौ, ठंडाई को सोर

मिर्च और सक्कर दई, सपरेटा में घोर

सपरेटा में घोर, बराती करते हुल्लड़

स्वादि-स्वादि में खेंचि गये हम बारह कुल्हड़

कहँ 'काका' कविराय, पेट हो गयौ नगाड़ौ

निकरौसी के समय हमें चढ़ि आयौ जाड़ौ


बेटावारे ने कही, यही हमारी टेक

दरबज्जे पे ले लऊँ नगद पाँच सौ एक

नगद पाँच सौ एक, परेंगी तब ही भाँवर

दूल्हा करिदौ बंद, दई भीतर सौं साँकर

कहँ 'काका' कवि, समधी डोलें रूसे-रूसे

अर्धरात्रि है गई, पेट में कूदें मूसे


बेटीवारे ने बहुत जोरे उनके हाथ

पर बेटा के बाप ने सुनी न कोऊ बात

सुनी न कोऊ बात, बराती डोलें भूखे

पूरी-लड़ुआ छोड़, चना हू मिले न सूखे

कहँ 'काका' कविराय, जान आफत में आई

जम की भैन बरात, कहावत ठीक बनाई


समधी-समधी लड़ि परै, तै न भई कछु बात

चलै घरात-बरात में थप्पड़- घूँसा-लात

थप्पड़- घूँसा-लात, तमासौ देखें नारी

देख जंग को दृश्य, कँपकँपी बँधी हमारी

कहँ 'काका' कवि, बाँध बिस्तरा भाजे घर को

पीछे सब चल दिये, संग में लैकें वर को


मार भातई पै परी, बनिगौ वाको भात

बिना बहू के गाम कों, आई लौट बरात

आई लौट बरात, परि गयौ फंदा भारी

दरबज्जै पै खड़ीं, बरातिन की घरवारीं

कहँ काकी ललकार, लौटकें वापिस जाऔ

बिना बहू के घर में कोऊ घुसन न पाऔ


हाथ जोरि माँगी क्षमा, नीची करकें मोंछ

काकी ने पुचकारिकें, आँसू दीन्हें पोंछ

आँसू दीन्हें पोंछ, कसम बाबा की खाई

जब तक जीऊँ, बरात न जाऊँ रामदुहाई

कहँ 'काका' कविराय, अरे वो बेटावारे

अब तो दै दै, टी-टी वारे दाम हमारे

जम और जमाई

जम और जमाई _ काका हाथरसी

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बड़ा भयंकर जीव है , इस जग में दामाद

सास - ससुर को चूस कर, कर देता बरबाद

कर देता बरबाद , आप कुछ पियो न खाओ

मेहनत करो , कमाओ , इसको देते जाओ

कहॅं ‘ काका ' कविराय , सासरे पहुँची लाली

भेजो प्रति त्यौहार , मिठाई भर- भर थाली


लल्ला हो इनके यहाँ , देना पड़े दहेज

लल्ली हो अपने यहाँ , तब भी कुछ तो भेज

तब भी कुछ तो भेज , हमारे चाचा मरते

रोने की एक्टिंग दिखा , कुछ लेकर टरते

‘ काका ' स्वर्ग प्रयाण करे , बिटिया की सासू

चलो दक्षिणा देउ और टपकाओ आँसू


जीवन भर देते रहो , भरे न इनका पेट

जब मिल जायें कुँवर जी , तभी करो कुछ भेंट

तभी करो कुछ भेंट , जँवाई घर हो शादी

भेजो लड्डू , कपड़े, बर्तन, सोना - चाँदी

कहॅं ‘ काका ', हो अपने यहाँ विवाह किसी का

तब भी इनको देउ , करो मस्तक पर टीका


कितना भी दे दीजिये , तृप्त न हो यह शख़्श

तो फिर यह दामाद है अथवा लैटर बक्स ?

अथवा लैटर बक्स , मुसीबत गले लगा ली

नित्य डालते रहो , किंतु ख़ाली का ख़ाली

कहँ ‘ काका ' कवि , ससुर नर्क में सीधा जाता

मृत्यु - समय यदि दर्शन दे जाये जमाता


और अंत में तथ्य यह कैसे जायें भूल

आया हिंदू कोड बिल , इनको ही अनुकूल

इनको ही अनुकूल , मार कानूनी घिस्सा

छीन पिता की संपत्ति से , पुत्री का हिस्सा

‘ काका ' एक समान लगें , जम और जमाई

फिर भी इनसे बचने की कुछ युक्ति न पाई

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हिंदी की दुर्दशा

िहन्दी की दुर्दशा _ काका हाथरसी

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बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्य

सुना? रूस में हो गई है हिंदी अनिवार्य

है हिंदी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा-

बनने वालों के मुँह पर क्या पड़ा तमाचा

कहँ ‘ काका ' , जो ऐश कर रहे रजधानी में

नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी में


पुत्र छदम्मीलाल से, बोले श्री मनहूस

हिंदी पढ़नी होये तो, जाओ बेटे रूस

जाओ बेटे रूस, भली आई आज़ादी

इंग्लिश रानी हुई हिंद में, हिंदी बाँदी

कहँ ‘ काका ' कविराय, ध्येय को भेजो लानत

अवसरवादी बनो, स्वार्थ की करो वक़ालत

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पुलिस-महिमा

पुलिस-मिहमा _ काका हाथरसी

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पड़ा - पड़ा क्या कर रहा , रे मूरख नादान

दर्पण रख कर सामने , निज स्वरूप पहचान

निज स्वरूप पह्चान , नुमाइश मेले वाले

झुक - झुक करें सलाम , खोमचे - ठेले वाले

कहँ ‘ काका ' कवि , सब्ज़ी - मेवा और इमरती

चरना चाहे मुफ़्त , पुलिस में हो जा भरती


कोतवाल बन जाये तो , हो जाये कल्यान

मानव की तो क्या चले , डर जाये भगवान

डर जाये भगवान , बनाओ मूँछे ऐसीं

इँठी हुईं , जनरल अयूब रखते हैं जैसीं

कहँ ‘ काका ', जिस समय करोगे धारण वर्दी

ख़ुद आ जाये ऐंठ - अकड़ - सख़्ती - बेदर्दी


शान - मान - व्यक्तित्व का करना चाहो विकास

गाली देने का करो , नित नियमित अभ्यास

नित नियमित अभ्यास , कंठ को कड़क बनाओ

बेगुनाह को चोर , चोर को शाह बताओ

‘ काका ', सीखो रंग - ढंग पीने - खाने के

‘ रिश्वत लेना पाप ' लिखा बाहर थाने के

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सुरा समर्थन

सुरा समर्थन _ काका हाथरसी


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भारतीय इतिहास का, कीजे अनुसंधान

देव-दनुज-किन्नर सभी, किया सोमरस पान

किया सोमरस पान, पियें कवि, लेखक, शायर

जो इससे बच जाये, उसे कहते हैं 'कायर'

कहँ 'काका', कवि 'बच्चन' ने पीकर दो प्याला

दो घंटे में लिख डाली, पूरी 'मधुशाला'


भेदभाव से मुक्त यह, क्या ऊँचा क्या नीच

अहिरावण पीता इसे, पीता था मारीच

पीता था मारीच, स्वर्ण- मृग रूप बनाया

पीकर के रावण सीता जी को हर लाया

कहँ 'काका' कविराय, सुरा की करो न निंदा

मधु पीकर के मेघनाद पहुँचा किष्किंधा


ठेला हो या जीप हो, अथवा मोटरकार

ठर्रा पीकर छोड़ दो, अस्सी की रफ़्तार

अस्सी की रफ़्तार, नशे में पुण्य कमाओ

जो आगे आ जाये, स्वर्ग उसको पहुँचाओ

पकड़ें यदि सार्जेंट, सिपाही ड्यूटी वाले

लुढ़का दो उनके भी मुँह में, दो चार पियाले


पूरी बोतल गटकिये, होय ब्रह्म का ज्ञान

नाली की बू, इत्र की खुशबू एक समान

खुशबू एक समान, लड़्खड़ाती जब जिह्वा

'डिब्बा' कहना चाहें, निकले मुँह से 'दिब्बा'

कहँ 'काका' कविराय, अर्ध-उन्मीलित अँखियाँ

मुँह से बहती लार, भिनभिनाती हैं मखियाँ


प्रेम-वासना रोग में, सुरा रहे अनुकूल

सैंडिल-चप्पल-जूतियां, लगतीं जैसे फूल

लगतीं जैसे फूल, धूल झड़ जाये सिर की

बुद्धि शुद्ध हो जाये, खुले अक्कल की खिड़की

प्रजातंत्र में बिता रहे क्यों जीवन फ़ीका

बनो 'पियक्कड़चंद', स्वाद लो आज़ादी का


एक बार मद्रास में देखा जोश-ख़रोश

बीस पियक्कड़ मर गये, तीस हुये बेहोश

तीस हुये बेहोश, दवा दी जाने कैसी

वे भी सब मर गये, दवाई हो तो ऐसी

चीफ़ सिविल सर्जन ने केस कर दिया डिसमिस

पोस्ट मार्टम हुआ, पेट में निकली 'वार्निश'

पंचभूत







पंचभूत _ काका हाथरसी


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भाँड़, भतीजा, भानजा, भौजाई, भूपाल

पंचभूत की छूत से, बच व्यापार सम्हाल

बच व्यापार सम्हाल, बड़े नाज़ुक ये नाते

इनको दिया उधार, समझ ले बट्टे खाते

‘काका ' परम प्रबल है इनकी पाचन शक्ती

जब माँगोगे, तभी झाड़ने लगें दुलत्ती

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सहनशीलता

सहनशीलता _ काकाहाथरसी

साहब हो गए 58 पर रिटायर
क्योंकि, कानून की दृष्टि में
उनकी बुद्धि हो गई थी ऐक्सपायर
लेकिन हमारे सिर पर सवार हैं-
साठोत्तर प्रधानमंत्री और 81 वर्षीय राष्ट्रपति
वे क्यों नहीं होते रिटायर ?
चुप रहो, तुम नहीं जानते इसका कारण,
यह है हमारी सहनशीलता का प्रत्यक्ष उदाहरण
नेताओं की भाँति कवि और शायर भी कभी नहीं होते रिटायर।
अपन 85 में चल रहे हैं, फिर भी कविता लिख रहे हैं। इस उम्र में भी काका पर फिदा हैं आकाशवाणी और दूरदर्शन।

अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार

अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार _काकाहाथरसी

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बिना टिकट के ट्रेन में चले पुत्र बलवीर

जहाँ ‘मूड’ आया वहीं, खींच लई ज़ंजीर

खींच लई ज़ंजीर, बने गुंडों के नक्कू

पकड़ें टी. टी. गार्ड, उन्हें दिखलाते चक्कू

गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार बढ़ा दिन-दूना

प्रजातंत्र की स्वतंत्रता का देख नमूना

भ्रष्टाचार



भ्रष्टाचार _ काका हाथरसी






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ाशन की दुकान पर, देख भयंकर भीर

‘क्यू’ में धक्का मारकर, पहुँच गये बलवीर

पहुँच गये बलवीर, ले लिया नंबर पहिला

खड़े रह गये निर्बल, बूढ़े, बच्चे, महिला

कहँ ‘काका' कवि, करके बंद धरम का काँटा

लाला बोले - भागो, खत्म हो गया आटा

कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |


कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ _ काका हाथरसी
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तुम निष्क्रिय से पड़े हुए हो |
भाग्य वाद पर अड़े हुए हो|
छोड़ो मित्र ! पुरानी डफली,
जीवन में परिवर्तन लाओ |
परंपरा से ऊंचे उठ कर, कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |
जब तक घर मे धन संपति हो,
बने रहो प्रिय आज्ञाकारी |
पढो, लिखो, शादी करवा लो ,

फिर मानो यह बात हमारी |
माता पिता से काट कनेक्शन,
अपना दड़बा अलग बसाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |
करो प्रार्थना, हे प्रभु हमको,
पैसे की है सख़्त ज़रूरत |
अर्थ समस्या हल हो जाए,
शीघ्र निकालो ऐसी सूरत |
हिन्दी के हिमायती बन कर,
संस्थाओं से नेह जोड़िये |
किंतु आपसी बातचीत में,

अंग्रेजी की टांग तोड़िये |

इसे प्रयोगवाद कहते हैं,
समझो गहराई में जाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |
कवि बनने की इच्छा हो तो,
यह भी कला बहुत मामूली |

नुस्खा बतलाता हूँ, लिख लो,
कविता क्या है, गाजर मूली |
कोश खोल कर रख लो आगे,
क्लिष्ट शब्द उसमें से चुन लो|
उन शब्दों का जाल बिछा कर,
चाहो जैसी कविता बुन लो |
श्रोता जिसका अर्थ समझ लें,

वह तो तुकबंदी है भाई |
जिसे स्वयं कवि समझ न पाए,
वह कविता है सबसे हाई |

इसी युक्ती से बनो महाकवि,

"नई कविता" बतलाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |
चलते चलते मेन रोड पर,

फिल्मी गाने गा सकते हो |
चौराहे पर खड़े खड़े तुम,
चाट पकोड़ी खा सकते हो |
बड़े चलो उन्नति के पथ पर,
रोक सके किस का बल बूता?
यों प्रसिद्ध हो जाओ जैसे,

भारत में बाटा का जूता |

नई सभ्यता, नई संस्कृति,
के नित चमत्कार दिखलाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |
पिकनिक का जब मूड बने तो,
ताजमहल पर जा सकते हो |
शरद-पूर्णिमा दिखलाने को,

'उन्हें' साथ ले जा सकते हो |
वे देखें जिस समय चंद्रमा,
तब तुम निरखो सुघर चाँदनी |
दोनों मिल कर के गाओ,
मधुर स्वरों में मधुर रागिनी |

( तू मेरा चाँद मैं तेरी चाँदनी ..)
आलू छोला, कोका-कोला, '
उनका' भोग लगा कर पाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ|

मुर्ग़ी और नेता


मुर्ग़ी और नेता _ काकाहाथरसी

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नेता अखरोट से बोले किसमिस लाल

हुज़ूर हल कीजिये मेरा एक सवाल

मेरा एक सवाल, समझ में बात न भरती

मुर्ग़ी अंडे के ऊपर क्यों बैठा करती

नेता ने कहा, प्रबंध शीघ्र ही करवा देंगे

मुर्ग़ी के कमरे में एक कुर्सी डलवा देंगे

तेली कौ ब्याह

तेली कौ ब्याह _ काका हाथरसी


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भोलू तेली गाँव में, करै तेल की सेल
गली-गली फेरी करै, 'तेल लेऊ जी तेल'
'तेल लेऊ जी तेल', कड़कड़ी ऐसी बोली
बिजुरी तड़कै अथवा छूट रही हो गोली

कहँ काका कवि कछुक दिना सन्नाटौ छायौ
एक साल तक तेली नहीं गाँव में आयो

मिल्यौ अचानक एक दिन,
मरियल बा की चाल
काया ढीली पिलपिली,
पिचके दोऊ गाल
पिचके दोऊ गाल,
गैल में धक्का खावै
'तेल लेऊ जी तेल',
बकरिया सौ मिमियावै

पूछी हमने जे कहा हाल है गयौ तेरौ
भोलू बोलो,
काका ब्याह है गयौ मेरौ

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पिल्ला


पिल्ला _ काका हाथरसी

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पिल्ला बैठा कार में, मानुष ढोवें बोझ

भेद न इसका मिल सका, बहुत लगाई खोज

बहुत लगाई खोज, रोज़ साबुन से न्हाता

देवी जी के हाथ, दूध से रोटी खाता

कहँ 'काका' कवि, माँगत हूँ वर चिल्ला-चिल्ला

पुनर्जन्म में प्रभो! बनाना हमको पिल्ला

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नाम बड़े दर्शन छोटे




नाम बड़े दर्शन छोटे _ काका हाथरसी


नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर?

नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और।

शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने,

बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने।

कहं ‘काका’ कवि, दयारामजी मारे मच्छर,

विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर।


मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप,

श्यामलाल का रंग है, जैसे खिलती धूप।

जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट हैण्ट में-

ज्ञानचंद छ्ह बार फेल हो गए टैंथ में।

कहं ‘काका’ ज्वालाप्रसादजी बिल्कुल ठंडे,

पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे।


देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट,

सेठ छदम्मीलाल के मील चल रहे आठ।

मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे,

धनीरामजी हमने प्राय: निर्धन देखे।

कहं ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गए कंवारे,

बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे।

दीन श्रमिक भड़का दिए, करवा दी हड़ताल,

मिल-मालिक से खा गए रिश्वत दीनदयाल।

रिश्वत दीनदयाल, करम को ठोंक रहे हैं,

ठाकुर शेरसिंह पर कुत्ते भोंक रहे हैं।

‘काका’ छ्ह फिट लंबे छोटूराम बनाए,

नाम दिगम्बरसिंह वस्त्र ग्यारह लटकाए।


पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल,

बिना सूंड के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल।

मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी-

बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी।

कहं ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा,

नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा।


दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर,

भागचंद की आज तक सोई है तकदीर।

सोई है तकदीर, बहुत-से देखे-भाले,

निकले प्रिय सुखदेव सभी, दु:ख देने वाले।

कहं ‘काका’ कविराय, आंकड़े बिल्कुल सच्चे,

बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे।


चतुरसेन बुद्धू मिले, बुद्धसेन निर्बुद्ध,

श्री आनन्दीलालजी रहें सर्वदा क्रुद्ध।

रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते,

इंसानों को मुंशी, तोताराम पढ़ाते,

कहं ‘काका’, बलवीरसिंहजी लटे हुए हैं,

थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं।


बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल,

सूखे गंगारामजी, रूखे मक्खनलाल।

रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी-

निकले बेटा आसाराम निराशावादी।

कहं ‘काका’, कवि भीमसेन पिद्दी-से दिखते,

कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते।


आकुल-व्याकुल दीखते शर्मा परमानंद,

कार्य अधूरा छोड़कर भागे पूरनचंद।

भागे पूरनचंद, अमरजी मरते देखे,

मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे।

कहं ‘काका’ भण्डारसिंहजी रोते-थोते,

बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते।


शीला जीजी लड़ रही, सरला करती शोर,

कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन निकलीं बड़ी कठोर।

निकलीं बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली

सुधा सहेली अमृतबाई सुनीं विषैली।

कहं ‘काका’ कवि, बाबू जी क्या देखा तुमने?

बल्ली जैसी मिस लल्ली देखी है हमने।



तेजपालजी मौथरे, मरियल-से मलखान,

लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान।

करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई,

वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई।

कहं ‘काका’ कवि, फूलचंदनजी इतने भारी-

दर्शन करके कुर्सी टूट जाय बेचारी।


खट्टे-खारी-खुरखुरे मृदुलाजी के बैन,

मृगनैनी के देखिए चिलगोजा-से नैन।

चिलगोजा-से नैन, शांता करती दंगा,

नल पर न्हातीं गोदावरी, गोमती, गंगा।

कहं ‘काका’ कवि, लज्जावती दहाड़ रही है,

दर्शनदेवी लम्बा घूंघट काढ़ रही है।


कलीयुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ,

चपलादेवी को मिले बाबू भोलानाथ।

बाबू भोलानाथ, कहां तक कहें कहानी,

पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी।

‘काका’ लक्ष्मीनारायण की गृहणी रीता,

कृष्णचंद्र की वाइफ बनकर आई सीता।


अज्ञानी निकले निरे, पंडित ज्ञानीराम,

कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम।

रक्खा दशरथ नाम, मेल क्या खुब मिलाया,

दूल्हा संतराम को आई दुलहिन माया।

‘काका’ कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा-

पार्वतीदेवी है शिवशंकर की अम्मा।


पूंछ न आधी इंच भी, कहलाते हनुमान,

मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर-कमान।

घर में तीर-कमान, बदी करता है नेका,

तीर्थराज ने कभी इलाहाबाद न देखा।

सत्यपाल ‘काका’ की रकम डकार चुके हैं,

विजयसिंह दस बार इलैक्शन हार चुके हैं।


सुखीरामजी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त,

हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ।

रहें सदा अस्वस्थ, प्रभु की देखो माया,

प्रेमचंद में रत्ती-भर भी प्रेम न पाया।

कहं ‘काका’ जब व्रत-उपवासों के दिन आते,

त्यागी साहब, अन्न त्यागकार रिश्वत खाते।


रामराज के घाट पर आता जब भूचाल,

लुढ़क जायं श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल।

बैठें घूरेलाल, रंग किस्मत दिखलाती,

इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती।

कहं ‘काका’, गंभीरसिंह मुंह फाड़ रहे हैं,

महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं।


दूधनाथजी पी रहे सपरेटा की चाय,

गुरू गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय

घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण-

मक्खन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण।

‘काका’, प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे,

हरिश्चंद्रजी झूठे केस लड़ाते देखे।


रूपराम के रूप की निन्दा करते मित्र,

चकित रह गए देखकर कामराज का चित्र।

कामराज का चित्र, थक गए करके विनती,

यादराम को याद न होती सौ तक गिनती,

कहं ‘काका’ कविराय, बड़े निकले बेदर्दी,

भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी।


नाम-धाम से काम का क्या है सामंजस्य?

किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य।

झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिटें न रेखा,

स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा।

कहं ‘काका’, कंठस्थ करो, यह बड़े काम की,

माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की।

चालीसवाँ राष्ट्रीय भ्रष्टाचार महोत्सव / अशोक चक्रधर

चालीसवाँ राष्ट्रीय भ्रष्टाचार महोत्सव / अशोक चक्रधर

पिछले दिनों चालीसवाँ राष्ट्रीय भ्रष्टाचार महोत्सव मनाया गया।
सभी सरकारी संस्थानों को बुलाया गया।
भेजी गई सभी को निमंत्रण-पत्रावली
साथ मे प्रतियोगिता की नियमावली।

लिखा था- प्रिय भ्रष्टोदय, आप तो जानते हें
भ्रष्टाचार हमारे देश की पावन-पवित्र सांस्कृतिक विरासत है
हमारी जीवन-पद्धति है
हमारी मजबूरी है, हमारी आदत है।
आप अपने विभागीय भ्रष्टाचार का
सर्वोत्कृष्ट नमूना दिखाइए
और उपाधियाँ तथा पदक-पुरस्कार पाइए।
व्यक्तिगत उपाधियाँ हैं-
भ्रष्टशिरोमणि, भ्रष्टविभूषण
भ्रष्टभूषण और भ्रष्टरत्न और यदि सफल हुए
आपके विभागीय प्रयत्न
तो कोई भी पदक,
जैसे-
स्वर्ण गिद्ध, रजत बगुला या कांस्य कउआ दिया जाएगा।
सांत्वना पुरस्कार में
प्रमाण-पत्र
और
भ्रष्टाचार प्रतीक पेय ह्वस्की का एक-एक पउवा दिया जाएगा।
प्रविष्टियाँ भरिए और न्यूनतम योग्यताएँ पूरी करते हों तो
प्रदर्शन अथवा प्रतियोगिता खंड में स्थान चुनिए।

कुछ तुले, कुछ अनतुले भ्रष्टाचारी

कुछ कुख्यात निलंबित अधिकारी
जूरी के सदस्य बनाए गए,
मोटी रकम देकर बुलाए गए।
मुर्ग तंदूरी, शराब अंगूरी
और विलास की सारी चीज़ें जरूरी जुटाई गईं,
और निर्णायक मंडल यानी कि जूरी को दिलाई गईं।
एक हाथ से मुर्गे की टाँग चबाते हुए ,
और दूसरे से चाबी का छल्ला घुमाते हुए
जूरी का एक सदस्य बोला- ‘मिस्टर भोला !
यू नो
हम ऐसे करेंगे या वैसे करेंगे
बट बाइ द वे
भ्रष्टाचार नापने का पैमाना क्या है हम फ़ैसला कैसे करेंगे ?

मिस्टर भोला ने सिर हिलाया
और हाथों को घूरते हुए फरमाया-
‘चाबी के छल्ले को टेंट में रखिए
और मुर्गे की टाँग को प्लेट में रखिए
फिर सुनिए मिस्टर मुरारका
भ्रष्टाचार होता है चार प्रकार का।
पहला-नज़राना !
यानी नज़र करना, लुभाना
यह काम होने से पहले दिया जाने वाला ऑफर है
और पूरी तरह से
देनेवाले की श्रद्धा और इच्छा पर निर्भर है।
दूसरा-शुकराना!
इसके बारे में क्या बताना !
यह काम होने के बाद बतौर शुक्रिया दिया जाता है
लेने वाले को
आकस्मिक प्राप्ति के कारण बड़ा मजा आता है।
तीसरा-हकराना, यानी हक जताना
-हक बनता है जनाब
बँधा-बँधाया हिसाब
आपसी सैटिलमेंट
कहीं दस परसेंट, कहीं पंद्रह परसेंट
कहीं बीस परसेंट ! पेमेंट से पहले पेमेंट।
चौथा जबराना।
यानी जबर्दस्ती पाना
यह देनेवाले की नहीं
लेनेवाले की
इच्छा, क्षमता और शक्ति पर डिपेंड करता है
मना करने वाला मरता है।
इसमें लेनेवाले के पास पूरा अधिकार है
दुत्कार है, फुंकार है, फटकार है।
दूसरी ओर न चीत्कार, न हाहाकार
केवल मौन स्वीकार होता है
देने वाला अकेले में रोता है।
तो यही भ्रष्टाचार का सर्वोत्कृष्ट प्रकार है
जो भ्रष्टाचारी इसे न कर पाए उसे धिक्कार है।
नजराना का एक पाइंट
शुकराना के दो, हकराना के तीन
और जबराना के चार
हम भ्रष्टाचार को अंक देंगे इस प्रकार।’

रात्रि का समय
जब बारह पर आ गई सुई
तो प्रतियोगिता शुरू हुई।
सर्वप्रथम जंगल विभाग आया
जंगल अधिकारी ने बताया-

‘इस प्रतियोगिता के
सारे फर्नीचर के लिए
चार हजार चार सौ बीस पेड़ कटवाए जा चुके हैं
और एक-एक डबल बैड, एक-एक सोफा-सैट
जूरी के हर सदस्य के घर, पहले ही भिजवाए जा चुके हैं
हमारी ओर से भ्रष्टाचार का यही नमूना है,
आप सुबह जब जंगल जाएँगे
तो स्वयं देखेंगे
जंगल का एक हिस्सा अब बिलकुल सूना है।’

अगला प्रतियोगी पी.डब्लू.डी. का
उसने बताया अपना तरीका-

‘हम लैंड-फिलिंग या अर्थ-फिलिंग करते हैं।
यानी ज़मीन के निचले हिस्सों को
ऊँचा करने के लिए मिट्टी भरते हैं।
हर बरसात में मिट्टी बह जाती है,
और समस्या वहीं-की-वहीं रह जाती है।
जिस टीले से हम मिट्टी लाते हैं
या कागजों पर लाया जाना दिखाते हैं
यदि सचमुच हमने उतनी मिट्टी को डलवाया होता
तो आपने उस टीले की जगह पृथ्वी में
अमरीका तक का आरपार गड्ढा पाया होता।
लेकिन टीला ज्यों-का-त्यों खड़ा है।
उतना ही ऊँचा, उतना ही बड़ा है
मिट्टी डली भी और नहीं भी
ऐसा नमूना नहीं देखा होगा कहीं भी।’

क्यू तोड़कर अचानक
अंदर घुस आए एक अध्यापक-

‘हुजूर
मुझे आने नहीं दे रहे थे
शिक्षा का भ्रष्टाचार बताने नहीं दे रहे थे
प्रभो !’

एक जूरी मेंबर बोला-‘चुप रहो

चार ट्यूशन क्या कर लिए
कि भ्रष्टाचारी समझने लगे
प्रतियोगिता में शरीक होने का दम भरने लगे !
तुम क्वालिफाई ही नहीं करते
बाहर जाओ-
नेक्स्ट, अगले को बुलाओ।’

अब आया पुलिस का एक दरोगा बोला-

‘हम न हों तो भ्रष्टाचार कहाँ होगा ?
जिसे चाहें पकड़ लेते हैं, जिसे चाहें रगड़ देते हैं
हथकड़ी नहीं डलवानी दो हज़ार ला,
जूते भी नहीं खाने दो हज़ार ला,
पकड़वाने के पैसे, छुड़वाने के पैसे
ऐसे भी पैसे, वैसे भी पैसे
बिना पैसे हम हिलें कैसे ?
जमानत, तफ़्तीश, इनवेस्टीगेशन
इनक्वायरी, तलाशी या ऐसी सिचुएशन
अपनी तो चाँदी है,
क्योंकि स्थितियाँ बाँदी हैं
डंके का ज़ोर हैं
हम अपराध मिटाते नहीं हैं
अपराधों की फ़सल की देखभाल करते हैं
वर्दी और डंडे से कमाल करते हैं।’

फिर आए क्रमश: एक्साइज वाले,

इनकम टैक्स वाले, स्लमवाले, कस्टमवाले,

डी.डी.ए.वाले टी.ए.डी.ए.वाले रेलवाले, खेलवाले
हैल्थवाले, वैल्थवाले, रक्षावाले,

शिक्षावाले, कृषिवाले, खाद्यवाले,

ट्रांसपोर्टवाले, एअरपोर्टवाले सभी ने बताए अपने-अपने घोटाले।

प्रतियोगिता पूरी हुई
तो जूरी के एक सदस्य ने कहा-

‘देखो भाई,
स्वर्ण गिद्ध तो पुलिस विभाग को जा रहा है
रजत बगुले के लिए
पी.डब्लू.डी
डी.डी.ए.के बराबर आ रहा है
और ऐसा लगता है हमको
काँस्य कउआ मिलेगा एक्साइज या कस्टम को।’

निर्णय-प्रक्रिया चल ही रही थी कि
अचानक मेज फोड़कर
धुएँ के बादल अपने चारों ओर छोड़कर
श्वेत धवल खादी में लक-दक
टोपीधारी गरिमा-महिमा उत्पादक
एक विराट व्यक्तित्व प्रकट हुआ
चारों ओर रोशनी और धुआँ।
जैसे गीता में श्रीकृष्ण ने
अपना विराट स्वरूप दिखाया
और महत्त्व बताया था
कुछ-कुछ वैसा ही था नज़ारा

विराट नेताजी ने मेघ-मंद्र स्वर में उचारा-

‘मेरे हज़ारों मुँह, हजारों हाथ हैं
हज़ारों पेट हैं, हज़ारों ही लात हैं।
नैनं छिंदति पुलिसा-वुलिसा
नैनं दहति संसदा !
नाना विधानि रुपाणि
नाना हथकंडानि च।
ये सब भ्रष्टाचारी मेरे ही स्वरूप हैं
मैं एक हूँ, लेकिन करोड़ों रूप हैं।
अहमपि नजरानम् अहमपि शुकरानम्
अहमपि हकरानम् च जबरानम् सर्वमन्यते।
भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट
रिश्वतख़ोर थानेदार
इंजीनियर, ओवरसियर
रिश्तेदार-नातेदार
मुझसे ही पैदा हुए, मुझमें ही समाएँगे
पुरस्कार ये सारे मेरे हैं, मेरे ही पास आएँगे।’

कुत्ते तभी भौंकते हैं / अल्हड़ बीकानेरी

कुत्ते तभी भौंकते हैं / अल्हड़ बीकानेरी


रामू जेठ बहू से बोले, मत हो बेटी बोर कुत्ते तभी भौंकते हैं जब दिखें गली में चोर

वफ़ादार होते हैं कुत्ते, नर हैं नमक हराम
मिली जिसे कुत्ते की उपमा, चमका उसका नाम
दिल्ली क्या, पूरी दुनिया में मचा हुआ है शोर

हैं कुत्ते की दुम जैसे ही, टेढ़े सभी सवाल जो जबाव दे सके, कौन है वह माई का लाल देख रहे टकटकी लगा, सब स्वीडन की ओर

प्रजातंत्र का प्रहरी कुत्ता, करता नहीं शिकार
रूखा-सूखा टुकड़ा खाकर लेटे पाँव पसार
बँगलों के बुलडॉग यहाँ सब देखे आदमख़ोर

कुत्ते के बजाय कुरते का बैरी, यह नाचीज़ मुहावरों के मर्मज्ञों को, इतनी नहीं तमीज़ पढ़ने को नित नई पोथियाँ, रहे ढोर के ढोर

दिल्ली के कुछ लोगों पर था चोरी का आरोप
खोजी कुत्ता लगा सूँघने अचकन पगड़ी टोप
जकड़ लिया कुत्ते ने मंत्री की धोती का छोर

तो शामी केंचुआ कह उठा, ‘हूँ अजगर’ का बाप ऐसी पटकी दी पिल्ले ने, चित्त हुआ चुपचाप साँपों का कर चुके सफाया हरियाणा के मोर।

मसूरी यात्रा








मसूरी यात्रा

_काकाहाथरसी


देवी जी कहने लगीं, घूँघट की आड़
हमको दिखलाए नहीं, तुमने कभी पहाड़
तुमने कभी पहाड़, हाय तकदीर हमारी
इससे तो अच्छा, मैं नर होती, तुम नारी
कहँ ‘काका’ कविराय, जोश तब हमको आया
मानचित्र भारत का लाकर उन्हें दिखाया

देखो इसमें ध्यान से, हल हो गया सवाल
यह शिमला, यह मसूरी, यह है नैनीताल
यह है नैनीताल, कहो घर बैठे-बैठे-
दिखला दिए पहाड़, बहादुर हैं हम कैसे ?
कहँ ‘काका’ कवि, चाय पिओ औ’ बिस्कुट कुतरो
पहाड़ क्या हैं, उतरो, चढ़ो, चढ़ो, फिर उतरो

यह सुनकर वे हो गईं लड़ने को तैयार
मेरे बटुए में पड़े, तुमसे मर्द हज़ार
तुमसे मर्द हज़ार, मुझे समझा है बच्ची ?
बहका लोगे कविता गढ़कर झूठी-सच्ची ?
कहँ ‘काका’ भयभीत हुए हम उनसे ऐसे
अपराधी हो कोतवाल के सम्मुख जैसे

आगा-पीछा देखकर करके सोच-विचार
हमने उनके सामने डाल दिए हथियार
डाल दिए हथियार, आज्ञा सिर पर धारी
चले मसूरी, रात्रि देहरादून गुजारी
कहँ ‘काका’, कविराय, रात-भर पड़ी नहीं कल
चूस गए सब ख़ून देहरादूनी खटमल

सुबह मसूरी के लिए बस में हुए सवार
खाई-खंदक देखकर, चढ़ने लगा बुखार
चढ़ने लगा बुखार, ले रहीं वे उबकाई
नींबू-चूरन-चटनी कुछ भी काम न आई
कहँ ‘काका’, वे बोंली, दिल मेरा बेकल है
हमने कहा कि पति से लड़ने का यह फल है

उनका ‘मूड’ खराब था, चित्त हमारा खिन्न
नगरपालिका का तभी आया सीमा-चिह्न
आया सीमा-चिह्न, रुका मोटर का पहिया
लाओ टैक्स, प्रत्येक सवारी डेढ़ रुपैया
कहँ ‘काका’ कवि, हम दोनों हैं एक सवारी
आधे हम हैं, आधी अर्धांगिनी हमारी

बस के अड्डे पर खड़े कुली पहनकर पैंट
हमें खींचकर ले गए, होटल के एजेंट
होटल के एजेंट, पड़े जीवन के लाले
दोनों बाँहें खींच रहे, दो होटल वाले
एक कहे मेरे होटल का भाड़ा कम है
दूजा बोला, मेरे यहाँ ‘फ्लैश-सिस्टम’ है

हे भगवान ! बचाइए, करो कृपा की छाँह
ये उखाड़ ले जाएँगे, आज हमारी बाँह
आज हमारी बाँह, दौड़कर आओ ऐसे
तुमने रक्षा करी ग्राह से गज की जैसे
कहँ ‘काका’ कवि, पुलिस-रूप धरके प्रभु आए
चक्र-सुदर्शन छोड़, हाथ में हंटर लाए

रख दाढ़ी पर हाथ हम, देख रहे मजदूर
रिक्शेवाले ने कहा, आदावर्ज हुजूर
आदावर्ज हुजूर, रखूँ बिस्तरा-टोकरी ?
मसजिद में दिलवा दूँ तुमको मुफ्त कोठरी ?
कहँ ‘काका’ कवि, क्या बकता है गाड़ीवाले
सभी मियाँ समझे हैं तुमने दाढ़ी वाले ?

चले गए अँगरेज पर, छोड़ गए निज छाप
भारतीय संस्कृति यहाँ सिसक रही चुपचाप
सिसक रही चुपचाप, बीवियां घूम रही हैं
पैंट पहनकर ‘मालरोड’ पर झूम रही हैं
कहँ ‘काका’, जब देखोगे लल्लू के दादा
धोखे में पड़ जाओगे, नर है या मादा

बीवी जी पर हो गया फैसन भूत सवार
संडे को साड़ी बँधी, मंडे को सलवार
मंडे को सलवार, बॉबकट बाल देखिए
देशी घोड़ी, चलती इंगलिश चाल देखिए
कहँ ‘काका’, फिर साहब ही क्यों रहें अछूते
आठ कोट, दस पैंट, अठारह जोड़ी जूते

भूल गए निज सभ्यता, बदल गया परिधान
पाश्चात्य रँग में रँगी, भारतीय संतान
भारतीय संतान रो रही माता हिंदी
आज सुहागिन नारि लगाना भूली बिंदी
कहँ ‘काका’ कवि, बोलो बच्चो डैडी-मम्मी
माता और पिता कहने की प्रथा निकम्मी

मित्र हमारे मिल गए कैप्टिन घोड़ासिंग
खींच ले गए ‘रिंक’ में देखी स्केटिंग
देखी स्केटिंग, हृदय हम मसल रहे थे
चंपो के संग मिस्टर चंपू फिसल रहे थे
काकी बोली-क्यों जी, ये किस तरह लुढ़कते
चाभी भरी हुई है या बिजली से चलते ?

हाथ जोड़ हमने कहा, लालाजी तुम धन्य
जीवन-भर करते रहो, इसी कोटि के पुन्य
इसी कोटि के पुन्य, नाम भारत में पाओ
बिना टिकट, वैकुंठ-धाम को सीधे जाओ
कहँ काकी ललकार-अरे यह क्या ले आए
बुद्धू हो तुम, पानी के पैसे दे आए ?

हलवाई कहने लगा, फेर मूँछ पर हाथ
दूध और जल का रहा आदिकाल से साथ
आदिकाल से साथ, कौन इससे बच सकता ?
मंसूरी में खालिस दूध नहीं पच सकता
सुन ‘काका’, हम आधा पानी नहीं मिलाएँ
पेट फूल दस-बीस यात्री नित मर जाएँ

पानी कहती हो इसे, तुम कैसी नादान ?
यह, मंसूरी ‘मिल्क’ है, जानो अमृत समान
जानो अमृत समान, अगर खालिस ले आते
आज शाम तक हम दोनों निश्चित मर जाते
कहँ ‘काका’, यह सुनकर और चढ़ गया पारा
गर्म हुईं वे, हृदय खौलने लगा हमारा

उनका मुखड़ा क्रोध से हुआ लाल तरबूज
और हमारी बुद्धि का बल्ब हो गया फ्यूज
बल्ब हो गया फ्यूज, दूध है अथवा पानी
यह मसला गंभीर बहुत है, मेरी रानी
कहँ ‘काका’ कवि, राष्ट्रसंघ में ले जाएँगे
अथवा इस पर ‘जनमत-संग्रह’ करवाएँगे

शीतयुद्ध-सा छिड़ गया, बढ़ने लगा तनाव
लालबुझक्कड़ आ गए, करने बीच-बचाव
करने बीच-बचाव, खोल निज मुँह का फाटक
एक साँस में सभी दूध पी गए गटागट
कहँ ‘काका’, यह न्याय देखकर काकी बोली-
चलो हाथरस, मंसूरी को मारो गोली

नाम बड़े, दर्शन छोटे





नाम बड़े, दर्शन छोटे

_काकाहाथरसी

नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर ?
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और
शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने
कहँ ‘काका’ कवि, दयाराम जी मारें मच्छर
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर

मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप
श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप
जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट पैंट में-
ज्ञानचंद छै बार फेल हो गए टैंथ में
कहँ ‘काका’ ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे

देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट
सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ
मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे
धनीराम जी हमने प्राय: निर्धन देखे
कहँ ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गए क्वाँरे
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे

दीन श्रमिक भड़का दिए, करवा दी हड़ताल
मिल-मालिक से खा गए रिश्वत दीनदयाल
रिश्वत दीनदयाल, करम को ठोंक रहे हैं
ठाकुर शेरसिंह पर कुत्ते भौंक रहे हैं
‘काका’ छै फिट लंबे छोटूराम बनाए
नाम दिगंबरसिंह वस्त्र ग्यारह लटकाए

पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल
बिना सूँड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल
मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी-
बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी
कहँ ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा
नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा

दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर
भागचंद की आज तक सोई है तकदीर
सोई है तकदीर, बहुत-से देखे-भाले
निकले प्रिय सुखदेव सभी, दुख देने वाले
कहँ ‘काका’ कविराय, आँकड़े बिल्कुल सच्चे
बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे

चतुरसेन बुद्धू मिले,बुद्धसेन निर्बुद्ध
श्री आनंदीलालजी रहें सर्वदा क्रुद्ध
रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते
इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते
कहँ ‘काका’, बलवीरसिंह जी लटे हुए हैं
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं

बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल
सूखे गंगाराम जी, रूखे मक्खनलाल
रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी
निकले बेटा आशाराम निराशावादी
कहँ ‘काका’ कवि, भीमसेन पिद्दी-से दिखते
कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते

आकुल-व्याकुल दीखते शर्मा परमानंद
कार्य अधूरा छोड़कर भागे पूरनचंद
भागे पूरनचंद अमरजी मरते देखे
मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे
कहँ ‘काका’, भंडारसिंह जी रीते-थोते
बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते

शीला जीजी लड़ रहीं, सरला करतीं शोर
कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन निकलीं बड़ी कठोर
निकलीं बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली
सुधा सहेली अमृतबाई सुनीं विषैली
कहँ ‘काका’ कवि, बाबूजी क्या देखा तुमने ?
बल्ली जैसी मिस लल्ली देखी है हमने

तेजपाल जी भोथरे मरियल-से मलखान
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान
करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई
वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई
कहँ ‘काका’ कवि, फूलचंदजी इतने भारी
दर्शन करके कुर्सी टूट जाए बेचारी

खट्टे-खारी-खुरखुरे मृदुलाजी के बैन
मृगनैनी के देखिए चिलगोजा-से नैन
चिलगोजा से नैन शांता करती दंगा
नल पर न्हातीं गोदावरी, गोमती, गंगा
कहँ ‘काका’ कवि, लज्जावती दहाड़ रही है
दर्शन देवी लंबा घूँघट काढ़ रही है

कलियुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ
चपलादेवी को मिले बाबू भोलानाथ
बाबू भोलानाथ, कहाँ तक कहें कहानी
पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी
‘काका’, लक्ष्मीनारायण की गृहिणी रीता
कृष्णचंद्र की वाइफ बनकर आई सीता

अज्ञानी निकले निरे पंडित ज्ञानीराम
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम
रक्खा दशरथ नाम, मेल क्या खूब मिलाया
दूल्हा संतराम को आई दुलहिन माया
‘काका’ कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा
पार्वतीदेवी हैं शिवशंकर की अम्मा

पूँछ न आधी इंच भी, कहलाते हनुमान
मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर-कमान
घर में तीर-कमान बदी करता है नेका
तीर्थराज ने कभी इलाहाबाद न देखा
सत्यपाल ‘काका’ की रकम डकार चुके हैं
विजयसिंह दस बार इलैक्शन हार चुके हैं

सुखीराम जी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त
हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ
रहें सदा अस्वस्थ, प्रभू की देखो माया
प्रेमचंद ने रत्ती-भर भी प्रेम न पाया
कहँ ‘काका’, जब व्रत-उपवासों के दिन आते
त्यागी साहब, अन्न त्यागकर रिश्वत खाते

रामराज के घाट पर आता जब भूचाल
लुढ़क जाएँ श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल
बैठें घूरेलाल रंग किस्मत दिखलाती
इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती
कहँ ‘काका’ गंभीरसिंह मुँह फाड़ रहे हैं
महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं

दूधनाथ जी पी रे सपरेटा की चाय
गुरु गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय
घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण
मक्खन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण
‘काका’, प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे
हरिश्चंद्रजी झूठे केस लड़ाते देखे

रूपराम के रूप की निंदा करते मित्र
चकित रह गए देखकर कामराज का चित्र
कामराज का चित्र, थक गए करके विनती
यादराम को याद न होती सौ तक गिनती
कहँ ‘काका’ कविराय, बड़े निकले बेदर्दी
भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी

नाम-धाम से काम का, क्या है सामंजस्य ?
किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य
झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिटे न रेखा
स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा
कहँ ‘काका’, कंठस्थ करो, यह बड़े काम की
माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की