आरती : रिश्वतरानी की _ काका हाथरसी
जय रिश्वत रानी, मैया जय रिश्वत रानी।
तेरी महिमा से परिचित, सब ज्ञानी-अज्ञानी।।
नाम अनेकों, रूप बहुत, क्या कैसे कह पाएँ।
शेषनाग थक जाएँ, लेखनी आँसू टपकाएँ।।
भेंट, दलाली, नज़राना, बख़्शिश या हक-पानी।
देकर सुविधा-शुल्क, प्राप्त हो सुविधा मनमानी।।
भारत-भू पर, कोई कोना, नहीं दिखा ऐसा।
काम सफल हो जाए जहाँ पर, बिना दिए पैसा।।
ऐप्लीकेशन जिनकी नहिं, नंबर पर चढ़ पाती।
दे देते जो गिफ़्ट, लिफ़्ट झट उनको मिल जाती।।
कोर्ट कचहरी, न्यायालय में जड़ तेरी गहरी।
ईंट-ईंट से निकल रही, रिश्वत की स्वरलहरी।।
सौ-पचास का नोट, पिऊन की पॉकिट में धर दो।
कहो कान में, अमुक केस की फ़ाइल गुम कर दो।।
रेल-मेल में भीड़-भड़क्का, धकापेल-धक्का।
प्लेटफ़ार्म पर खड़े-खड़े, टिपियाते कवि कक्का।।
गार्ड साब ने मारी-सीटी, तब टी.टी. आया।
रुपए बीस दिए जिसने, उसने स्लीपर पाया।।
वेटिंग वालों से दस-दस लें, गायब हो जाएँ।
ड्रैस बदलकर, फ़र्स्ट-क्लास कूपे में सो जाएँ।।
होली पर ससुराल गए, तो पड़े व्यंग्य-कोड़े।
‘फगुआ’ रूपी रिश्वत लेकर, साली ने छोड़े।।
रिश्वत रानी की आरति, जो श्रद्धा से गाए।
होय अँगूठा छाप, नामवर नेता बन जाए।।